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हि॒ङ्कृ॒ण्व॒ती व॑सु॒पत्नी॒ वसू॑नां व॒त्समि॒च्छन्ती॒ मन॑सा॒भ्यागा॑त्। दु॒हाम॒श्विभ्यां॒ पयो॑ अ॒घ्न्येयं सा व॑र्धतां मह॒ते सौभ॑गाय ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

hiṅkṛṇvatī vasupatnī vasūnāṁ vatsam icchantī manasābhy āgāt | duhām aśvibhyām payo aghnyeyaṁ sā vardhatām mahate saubhagāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

हि॒ङ्ऽकृ॒ण्व॒ती। व॒सु॒ऽपत्नी॒। वसू॑नाम्। व॒त्सम्। इ॒च्छन्ती॑। मन॑सा। अ॒भि। आ। अ॒गा॒त्। दु॒हाम्। अ॒श्विऽभ्या॑म्। पयः॑। अ॒घ्न्या। इ॒यम्। सा। व॒र्ध॒ता॒म्। म॒ह॒ते। सौभ॑गाय ॥ १.१६४.२७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:164» मन्त्र:27 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:19» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:27


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब गौ और पृथिवी के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (हिङ्कृण्वती) हिंकारती और (मनसा) मन से (वत्सम्) बछड़े को (इच्छन्ती) चाहती हुई (इयम्) यह (अघ्न्या) मारने को न योग्य गौ (अभि, आ, अगात्) सब ओर से आती वा जो (अश्विभ्याम्) सूर्य और वायु से (पयः) जल वा दूध को (दुहाम्) दुहते हुए पदार्थों में वर्त्तमान पृथिवी है (सो) वह (वसूनाम्) अग्नि आदि वसुसञ्ज्ञकों में (वसुपत्नी) वसुओं की पालनवाली (महते) अत्यन्त (सौभगाय) सुन्दर ऐश्वर्य के लिये (वर्द्धताम्) बढ़े, उन्नति को प्राप्त हो ॥ २७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पृथिवी महान् ऐश्वर्य को बढ़ाती है, वैसे गौएँ अत्यन्त सुख देती हैं, इससे ये गौएँ कभी किसीको मारनी न चाहियें ॥ २७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ गोः पृथिव्याश्च विषयमाह ।

अन्वय:

यथा हिङ्कृण्वती मनसा वत्समिच्छन्तीयमघ्न्या गौरभ्यागात्। याऽश्विभ्यां पयो दुहां वर्त्तमाना भूरस्ति सा वसूनां वसुपत्नी महते सौभगाय वर्द्धताम् ॥ २७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (हिङ्कृण्वती) हिमिति शब्दयन्ती (वसुपत्नी) वसूनां पालिका (वसूनाम्) अग्न्यादीनाम् (वत्सम्) (इच्छन्ती) (मनसा) (अभि) (आ) (अगात्) अभ्यागच्छति (दुहाम्) (अश्विभ्याम्) सूर्यवायुभ्याम् (पयः) जलं दुग्धं वा (अघ्न्या) हन्तुमयोग्या (इयम्) (सा) (वर्द्धताम्) (महते) (सौभगाय) शोभनानामैश्वर्याणां भावाय ॥ २७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पृथिवी महदैश्वर्यं वर्धयति तथा गावो महत्सुखं प्रयच्छन्ति तस्मादेताः केनापि कदाचिन्नैव हिंस्याः ॥ २७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी पृथ्वी महान ऐश्वर्य वाढविते तशा गाई अत्यंत सुख देतात त्यासाठी कुणीही कधीही गाईंचा वध करता कामा नये. ॥ २७ ॥